Saturday 20 May 2017

किसानों का कर्ज और कर्जमाफी या सिर्फ एक राजनैतिक मुद्दा

हम सालों से देख रहे हैं कि किसानों को हर साल कर्ज दिया जाता हैं, किसान कर्ज नहीं चुका पाते हैं और केंन्द्र सरकार या राज्य सरकार कर्ज माफ करती हैं। जहां तक बात तंगहाली में फंसे किसानों को कर्ज के फंदे से बचाने की हैं, यह सही लगता हैं।

फिर बात राजनीतिक विवेक कि भी है, अमूमन प्रदेश सरकार चुनावी वादा करती हैं कर्ज माफ करने का, यही योगी सरकार ने किया । अब योगी इस कवायद में हैं कि चुनावी वादे को कैसे निभाया जाये। कैसे 94 लाख किसानों के 36,359 करोड़ रुपए के ऋण माफ किए जाए। आखिरकार वादा किया हैं तो निभाना पडेगा। यही राजनैतिक विवेक कहता हैं। कहा जा रहा हैं कि प्रदेश सरकार बैंकों का सारा ऋण अपने खाते से चुकाएगी। इसका सिधा फायदा हर साल कि तरह जहां किसानों को होगा वहीं बैंकों का फंसा हुआ ऋण भी निकालने का इंतज़ाम हो जायेगा।

पर यह सिलसिला है कि सालों से चलता आ रहा हैं पर समस्या का अंत नही नजर आ रहा हैं। एक तरफ किसान कर्ज उतार पाने की स्थिति में नहीं है। दूसरी तरफ कृषि ऋण का बजट लक्ष्य हर साल बढ़ता गया है। वित्त वर्ष 2007-08 में 2.55 लाख करोड़ रुपए बांटे गए। 2016-17 कि पहली छमाही में 7.56 लाख करोड़ रुपए के ऋण बांटे जा चुके थे। गौर किए जाने बात यह हैं कि चालू वित्त वर्ष 2017-18 के लिए बजट में कृषि ऋण का लक्ष्य 10 लाख करोड़ रुपए रखा गया है। वही इस साल खुद भारत सरकार कुल 5.8 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लेने जा रही है। आर्थिक विवेक के हिसाब से सरकारी खजाने पर पडने वाले सालाना आर्थिक बोज को देखा जाये तो यही कहा जा सकता हैं कि किसानों की कर्जमाफी गलत है। रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल से लेकर देश के सबसे बड़े बैंक, एसबीआई की चेयरमैन अरुंधति भट्टाचार्य तक इसका विरोध कर चुकी हैं।

सवाल, क्या कर्जमाफी किसानों की समस्या का समाधान है? कुछ मंथन करने वाले बिंदु इस प्रकार हैं :

·        वित्त वर्ष 2009-10 से किसानों को तीन लाख रुपए तक का फसल ऋण मात्र 4 प्रतिशत सालाना के ब्याज पर मिलता आ रहा है।
·        आखिर किसान 4 प्रतिशत सालाना ब्याज भी क्यों नहीं दे पाता?
·        शहरों में सब्जी व ठेले-खोमचे वाले तक हर दिन 2-3 प्रतिशत (सालाना 730 से 1095 प्रतिशत) ब्याज देकर भी धंधा व घर-परिवार चला लेते हैं?

बात साफ है कि कर्ज देना या माफ करना कृषि समस्या का समाधान नहीं है। कृषि घाटे का सौदा बन चुकी है, सरकार किसानो को इतना कर्जखोर बनाने पर क्यों तुली हुई है? एक और सवाल यह भी उठता हैं कि कृषि के नाम पर इतना कर्ज लेता कौन है? गौर करने वाली बात यह भी हैं कि अधिकांश फसल ऋण तब बंटते हैं, जब किसानों के खेत में कोई फसल होती ही नहीं।

कर्ज देकर माफ करना क्या एक रिवाज बन रहा हैं?
(सौ. दैनिक जागरण)

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