Wednesday, 12 May 2010

विमल ऑयल में उछाल

सुबह हमने चलते-चलते बताया था कि विमल ऑयल एंड फूड्स में तेजी के आसार हैं और वाकई यह शेयर बीएसई में एक ही दिन में 11.63 फीसदी की बढ़त के साथ 44.65 रुपए पर पहुंच गया। ऊपर में यह 45 तक गया था और फिर इसमें थोड़ी कमी आई है। हालांकि बढ़त 10 फीसदी के ऊपर बरकरार है। अनुमान है कि यह शेयर जल्दी ही 48 रुपए तक जा सकता है। वैसे, मेहसाणा (गुजरात) की यह कंपनी कोई लदर-बदर कंपनी नहीं है। विमल व लिपि ब्रांड नाम से अपने खाद्य तेल बेचती है और इन ब्रांडों की अपनी साख है। कंपनी तरह-तरह के रिफाइंड तेल के साथ ही कॉर्न उत्पाद और मार्जेरीन (मक्खन जैसा खाद्य) भी बनाती है।
कंपनी ने दिसंबर 2009 में खत्म तिमाही में 220 करोड़ रुपए की आय पर 1.99 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ कमाया था। कंपनी कुल चुकता पूंजी 4,55 करोड़ रुपए है जिसमें पब्लिक की हिस्सेदारी 69.38 फीसदी है, जबकि बाकी 30.62 फीसदी हिस्सा प्रवर्तकों के पास है। कंपनी के मुख्य प्रवर्तक और चेयरमैन व प्रबंध निदेशक जयेश पटेल हैं। वैसे यह पूरी कंपनी ही पटेल लोगों की है और गुजरात में कृषि के मामले में पटेल समुदाय का जबरदस्त दबदबा है।
यकीन नहीं आता कि कंपनी की बुक वैल्यू 95.03 रुपए और उसका शेयर 40-45 रुपए पर डोल रहा है। जाहिर है, निवेश के लिहाज से यह अब भी काफी मुफीद शेयर है। कंपनी ने आज ही अपने सालाना नतीजे भी घोषित किए हैं। उसने वित्त वर्ष 2009-10 में 731.53 करोड़ रुपए की आय पर 6.17 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ कमाया है, जबकि वित्त वर्ष 2008-09 में उसकी आय 620.71 करोड़ रुपए और शुद्ध लाभ 3.68 करोड़ रुपए था। इस दौरान कंपनी की प्रति शेयर कमाई (ईपीएस) 8.09 रुपए से बढ़कर 13.55 रुपए हो गई है। यानी इसका पी/ई अनुपात अभी है 3.5 से भी कम।
(सौ : अर्थकाम)

Saturday, 8 May 2010

Investment and Inflation-Tax Factors


Everyone knows that inflation eats into savings and increases costs . But what a lot of people grapple with is how does one insure oneself against inflation? Here we will discuss why it is important to invest wisely particularly if you do not want to keep running (working hard) just so that you can stand still (maintain your current standard of living). Consider the post-tax, real rate of return.

Whenever you consider an investment option, remember to evaluate the expected rate of return in real terms. In other words, deduct your expected compound annual rate of inflation for the investment period from the compound annual rate of return that you expect from your investment.

For example, say you are considering a bank fixed deposit that promises you an 11% annual rate of return over the next five years and your expectation of inflation during this period is 7% (compound annual).

For this investment, your real compound annual rate of return is only 4%. If your income from this investment attracts a 30% tax rate, then your post-tax real rate of return diminishes further to 0.7% only! A number nowhere near the 11% that you might be using to evaluate this investment option!! An investment with such characteristics is a classical example of running to stand still.

Let's look at how you could improve your 0.7% return. If you are willing to take on a slightly higher level of risk, you could invest this money into an income mutual fund with a dividend investment plan option. Such an investment is likely to yield around 11% post-tax return (since dividend income from mutual funds is non-taxable). This would effectively result in a post-tax, real rate of return of 4%, far higher than the 0.7% that the bank fixed deposit would earn for you.

On a 10-year perspective, Rs10,000 invested today in bank deposits (yielding 0.4% post-tax, real rate of return) would be worth Rs10,722 whereas the same amount invested in an income mutual fund is likely to be 38% higher at Rs14,802. Presumably, this should compensate you for the slightly higher risk to which your investment is exposed.

The above example highlights that inflation and taxes are important factors to consider while evaluating investment returns and how a little more attention to your investment decisions can result in a significant improvement in your financial health.
(Source: Sharepoint)

Saturday, 24 April 2010

टांका महंगाई, मुद्रास्फीति और ब्याज दर का


महंगाई हकीकत है। मुद्रास्फीति आंकड़ा है। औसत है। और, औसत अक्सर कुनबा डुबा दिया करता है। खैर वो किस्सा है। हम जानते हैं कि कोई चीज महंगी तब होती है जब उसकी मांग सप्लाई से ज्यादा हो जाती है। कई साल पहले जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने कहा था कि दुनिया में अनाज की कीमतें इसलिए बढ़ी हैं क्योंकि चीन और भारत में अब भूखे-नंगे लोगों के पास खरीदने की ताकत आ गई है। ऐसी ही बात हाल में यूपीएस सरकार ने कुछ नेताओं ने उवाची थी कि नरेगा जैसी योजनाओं से लोगों के पास धन आ गया है तो उनकी तरफ से नई मांग निकलने के चलते अनाज-दाल महंगे हो गए हैं। असल में आदर्श स्थितियों में ही मांग व सप्लाई का नियम लागू होता है। आपको याद ही होगा कि बुश के जमाने में सट्टेबाजों ने कच्चे तेल के दाम आसमान पर पहुंचाए थे, सप्लाई की कमी या मांग की अधिकता ने नहीं।
विकसित देशों में महंगाई की हकीकत और मुद्रास्फीति के आंकड़ों में फासला नहीं होता। अपने यहां चूंकि अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा संगठित नहीं हैं, आंकड़े जुटाने और उन्हें सही समुच्चय में बैठाने की पद्धति आधी-अधूरी है, इसलिए दोनों में काफी बड़ा फासला है। लेकिन हमारे अर्थशास्त्रियों और विद्वानों का ज्ञान संगठित व विकसित बाजारों पर आधारित है, इसलिए वे मुद्रास्फीति के बढ़ते ही ढोल बजाने लगते हैं कि अब तो मुद्रा की स्फीति को रोक देना चाहिए जिसका एक ही उपाय है कि ब्याज दरें बढ़ाकर धन की उपलब्धता को महंगा कर दिया जाए। ब्याज बढ़ने से लोग धन कम ले पाएंगे तो खर्च कम करेंगे जिससे मांग घट जाएगी, सप्लाई अपेक्षाकृत अधिक हो जाएगी और नतीजतन चीजें फिर से सस्ती हो जाएंगी। वैसे, बड़ा अजीब लगता है कि जब चीजें पहले से महंगी हों तो धन को भी महंगा बनाकर उन्हें कैसे सस्ता बनाया जा सकता है?
खैर, रिजर्व बैंक ने 2010-11 की सालाना मौद्रिक नीति में ब्याज दरों (रेपो व रिवर्स रेपो दर) को बढ़ाकर मांग घटाकर मुद्रास्फीति को घटाने की यही तरकीब अपनाई है। माना गया है कि कर्ज महंगा हो गया तो चीजों की सप्लाई मांग की अपेक्षा सही व संतुलित हो जाएगी। लेकिन उन्हें कौन समझाए कि कर्ज लेकर खर्च करना अमेरिका और यूरोप के लोगो की आदत है, हमारी नहीं। अमेरिकी में लीवरेज अनुपात 400 फीसदी है यानी लोग 100 रुपए कमाते हैं तो 400 रुपए खर्च करते हैं। भारत में यह अनुपात बमुश्किल 60-65 फीसदी का है। फाइनेंशियल इन्क्लूजन के तहत सरकार लोगों में कर्ज लेकर उपभोग करने की आदत डलवाना चाहती है। लेकिन हम अभी तक ऋणम् कृत्वा घृतम पीवेत् की मानसिकता को स्वीकार नहीं कर पाए हैं।
असल में माना जाता है कि व्यवस्था में जिस भी चीज की कमी रहेगी, वह महंगी हो जाएगी। जैसे, बीते साल कृषि व उससे जुड़ी गतिविधियों की बढ़ने नहीं, गिरने की दर 2.8 फीसदी रही तो खाने-पीने की चीजें महंगी हो गईं। इसी तरह जिस चीज से सारी चीजें खरीदी जाती हैं, यानी रुपयों की मात्रा घटा दी जाए तो वह महंगा हो जाता है। रिजर्व बैंक ने सीआरआर में चौथाई फीसदी वृद्धि से इसीलिए सिस्टम से 12,500 करोड़ रुपए निकाल लिए हैं। लेकिन समस्या यह है कि देश में धन के महंगे होने या ब्याज दरें अधिक होने से विदेशी धन का आना बढ़ जाता है क्योंकि वही धन उनके देश में कम कमाता है जबकि भारत में उस पर ब्याज से ज्यादा कमाई हो जाती है। अब होता यह है कि देश में डॉलर या यूरो जैसी विदेशी मुद्रा की सप्लाई बढ़ जाती है, जबकि रुपए की सप्लाई स्थिर व सीमित है तो रुपया इन मुद्राओं के सापेक्ष महंगा हो जाता है। इससे आयात तो रुपए में सस्ता हो जाता है, लेकिन निर्यात डॉलर या यूरो में महंगा हो जाता है जिससे देश का निर्यात कारोबार मात खा जाता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में इसेरिजर्व बैंक की तिरगुन फांस बताया था।
अपने यहां मोटे तौर पर होनेवाले खर्च या जीडीपी का 65 फीसदी हिस्सा उपभोग में जाता है और 33 फीसदी हिस्सा निवेश का है। दूसरे इस 33 फीसदी हिस्से का आधे से ज्यादा भाग हाउसहोल्ड सेक्टर से आता है। ऐसे में नई फैक्टरियां लगाने, क्षमता बढ़ाने या इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश का काफी कम हिस्सा खर्च होता है। ऐसे में धन या पूंजी को महंगा कर देने से उपभोग पर तो ज्यादा फर्क पड़ेगा नहीं, हां निवेश पर जरूर असर पड़ सकता है। शायद इसीलिए रिजर्व बैंक बार-बार मुद्रास्फीति और आर्थिक विकास में संतुलन बनाए रखने की बात करता है। यह भी गौर करने की बात है कि जहां रिजर्व बैंक ने धन की उपलब्धता को कम करने की कोशिश की है, वहीं इस साल के बजट में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने 8 लाख रुपए तक की आय पर टैक्स में छूट देकर लोगों को थोड़ा अतिरिक्त धन खर्च करने के लिए दे दिया है।
अगर मुद्रास्फीति की असली वजह सप्लाई का कम हो जाना है, तब अगर रिजर्व बैंक ब्याज दरें या सीआरआर बढ़ाकर धन के प्रवाह की सीमित व महंगा करता है या दूसरे शब्दों में कठोर मौद्रिक नीति अपनाता है तो मुद्रास्फीति तो घटेगी नहीं, बल्कि निवेश घटने से बेरोजगारी बढ़ जाएगी। इस स्थिति को ही स्टैगफ्लेशन या मंदीस्फीति कहते हैं। इसीलिए भारत जैसे देश में मौद्रिक नीति हमेशा ऐसी होनी चाहिए कि जिससे कृषि से लेकर उद्योग में निवेश बढ़े, दोनों ही क्षेत्रों में उत्पादन बढ़े। ऐसा होने पर खाने-पीने की चीजों के दाम भी काबू में ला जा सकते हैं। ताजा आंकड़ों के मुताबिक खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति 10 अप्रैल 2010 को खत्म हफ्ते में 17.65 फीसदी रही है जबकि ठीक एक हफ्ते पहले यह 17.22 फीसदी थी। जाहिर है खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति सबसे ज्यादा मार गरीबों करती है, अमीर लोगों पर नहीं क्योंकि अमीरों के कुल खर्च में खाने-पीने की चीजों का अनुपात अधिक नहीं होता।
(सौ. : CNI )

Tuesday, 20 April 2010

विजया बैंक - लम्बे समय घोडा

विजया बैंक पिछले चार सालों से लगातार लाभांश देता रहा है। इस बार भी उसकी बोर्ड मीटिंग 30 अप्रैल को है जिसमें वित्त वर्ष 2009-10 के नतीजों के साथ ही लाभांश देने पर विचार किया जाएगा। मंगलवार को उसका शेयर बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) में 2.58 फीसदी बढ़कर 49.70 रुपए और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) में 2.79 फीसदी बढ़कर 49.75 रुपए पर बंद हुआ है। यह शेयर बीएसई-200 सूचकांक का हिस्सा है। इसलिए इस पर कोई सर्किट ब्रेकर लागू नहीं होता। यानी, इसका शेयर बेरोकटोक कितना भी बढ़ सकता है।


इस समय इसमें जबरदस्त ट्रेडिंग हो रही है। मंगलवार को बीएसई में इसके 3.79 लाख और एनएसई में 23.64 लाख शेयरों के सौदे हुए हैं। इस शेयर का अंकित मूल्य 10 रुपए है। सबसे खास बात यह है कि इसके शेयर का भाव उसकी बुक वैल्यू से नीचे चल रहा है। शेयर की बुक वैल्यू 53.47 रुपए है जबकि उसका बाजार भाव 50 रुपए के आसपास है। बैंकिंग सेक्टर के बारे में माना जाता है कि अगर किसी शेयर की बुक वैल्यू उसके बाजार भाव से ज्यादा है तो उसमें निवेश बेहद सुरक्षित है। बीएसई में 52 हफ्ते का इसका उच्चतम भाव 58.75 रुपए और न्यूनतम भाव 26 रुपए रहा है।

बैंक का कामकाज भी अच्छा चल रहा है। वित्त वर्ष 2008-09 में उसने 5237,82 करोड़ रुपए की आय पर 262.48 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ कमाया था और उसकी प्रति शेयर कमाई (ईपीएस) 6.05 रुपए थी। दिसंबर 2009 की तिमाही में उसकी आय 1344.31 करोड़ रुपए और शुद्ध लाभ 124.57 करोड़ रुपए था। बैंक की मौजूदा चुकता पूंजी 433.52 करोड़ रुपए है। इसमें भारत सरकार की हिस्सेदारी 53.87 फीसदी है। उसका मौजूदा पूंजी पर्याप्तता अनुपात 13.34 फीसदी और एनपीए (गैर निष्पादित आस्तियां) 1.30 फीसदी है।

इस बार के बजट में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सरकारी बैंकों की पूंजी में 16,500 करोड़ रुपए लगाने की जो घोषणा की है, उसमें से 1200 करोड़ विजया बैंक को मिलने हैं। इसमें से 700 करोड़ रुपए उसे 31 मार्च 2010 तक मिल जाने थे। बैंक की अधिकृत पूंजी पहले ही 1500 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 3000 करोड़ रुपए की जा चुकी है। जाहिर है विजया बैंक लंबे निवेश के लिए बेहद सुरक्षित व मुफीद शेयर है।
(सौ. - CNI)

Wednesday, 14 April 2010

म्यूचुअल फंड निवेश में होता है कम जोखिम

शेयर, डिबेंचर या एफडी में किये गये सभी निवेश में जोखिम होता है। कम्पनी के निष्पादन, उद्योग, पूंजी बाजार या अर्थव्यवस्था की स्थिति के कारण शेयर का मूल्य नीचे जा सकता है। आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि जितने लम्बे समय के लिए निवेश किया जाता है, उतना ही कम जोखिम उसमें होता है। कम्पनियां ब्याज, मूलधन/बॉण्ड/जमा के भुगतान में दोषी हो सकती हैं। निवेश की ब्याज दर मुद्रास्फीति दर से कम हो सकती है, जिससे निवेशकों की क्रय–शक्ति घट सकती है।
जोखिम की आशंका को कभी भी खारिज नहीं किया जा सकता है, लेकिन कुशल प्रबन्धन से जोखिम को कम जरूर किया जा सकता है। म्यूचुअल फंड विविधीकृत निवेश और पेशेवर प्रबन्धन से जोखिम की संभावना घटा देते हैं। म्यूचुअल फंड प्रबन्धक अपने अनुभव और विशेज्ञता से सबसे उत्तम प्रतिभूतियों का ही चयन करते हैं और उचित समय पर उन्हें खरीदने/बेचने का काम करते हैं। वे विविधीकृत पोर्टफोलियो बनाने में मददगार होते हैं और जोखिम की आशंका कम से कम करके ज्यादा से ज्यादा आय की संभावना पैदा करते हैं।